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प्र त॒ आश्वि॑नीः पवमान धी॒जुवो॑ दि॒व्या अ॑सृग्र॒न्पय॑सा॒ धरी॑मणि । प्रान्तॠष॑य॒: स्थावि॑रीरसृक्षत॒ ये त्वा॑ मृ॒जन्त्यृ॑षिषाण वे॒धस॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra ta āśvinīḥ pavamāna dhījuvo divyā asṛgran payasā dharīmaṇi | prāntar ṛṣayaḥ sthāvirīr asṛkṣata ye tvā mṛjanty ṛṣiṣāṇa vedhasaḥ ||

पद पाठ

प्र । ते॒ । आश्वि॑नीः । प॒व॒मा॒न॒ । धी॒ऽजुवः॑ । दि॒व्याः । अ॒सृ॒ग्र॒न् । पय॑सा । धरी॑मणि । प्र । अ॒न्तः । ऋष॑यः । स्थावि॑रीः । अ॒सृ॒क्ष॒त॒ । ये । त्वा॒ । मृ॒जन्ति॑ । ऋ॒षि॒ऽसा॒ण॒ । वे॒धसः॑ ॥ ९.८६.४

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:86» मन्त्र:4 | अष्टक:7» अध्याय:3» वर्ग:12» मन्त्र:4 | मण्डल:9» अनुवाक:5» मन्त्र:4


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (पवमान) हे परमात्मन् ! (ते) तुम्हारी (आश्विनीः) व्याप्तियें (धीजुवः) जो मन के वेग के समान गतिशील और (दिव्याः) दिव्यरूप हैं, (धरीमणि) आपको धारण करनेवाले अन्तःकरण में (पयसा प्रासृग्रन्) अमृत को बहाती हुई गमन करती हैं। (वेधसः) कर्म्मों का विधान करनेवाले (ऋषिषाणः) ज्ञानी (ये) जो (त्वा) तुमको (मृजन्ति) विवेक करके जानते हैं, वे ऋषि (स्थाविरीः) सब कामनाओं की वृष्टि करनेवाले आपको (अन्तः) अन्तःकरण में (प्रासृक्षत) ध्यान का विषय बनाते हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो लोग दृढ़ता से ईश्वर की उपासना करते हैं, परमात्मा उनके ध्यान का विषय अवश्यमेव होता है। अर्थात् जब तक पुरुष सब ओर से अपनी चित्तवृत्तियों को हटाकर एकमात्र ईश्वरपरायण नहीं होता, तब तक वह सूक्ष्म से सूक्ष्म परमात्मा उसकी बुद्धि का विषय कदापि नहीं होता। इसी अभिप्राय से कहा है कि ‘दृश्यते त्वग्र्या बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः’ वह सूक्ष्मदर्शियों की सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ही देखा जाता है, अन्यथा नहीं ॥४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (पवमानः) हे परमात्मन् ! (ते) तव (आश्विनीः) व्याप्तयः (धीजुवः) या मनोवेगसमानगतिशीलाः (दिव्याः) अपि च दिव्यरूपाः सन्ति (धरीमणि) भवद्धारके अन्तःकरणे (पयसा, प्र, असृग्रन्) अमृतं वाहयन्त्यो गच्छन्ति। (वेधसः) कर्म्मविधातारः (ऋषिषाणः) ज्ञानिनः (ये) ये (त्वा) त्वां (मृजन्ति) तत्त्वमिथ्यात्वे विविच्य जानन्ति। ते ऋषयः (स्थाविरीः) सर्वकामान् वर्षकं भवन्तं (अन्तेः) अन्तःकरणे (प्र, असृक्षत) ध्यानविषयं विदधति ॥४॥